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परोपकार

  • Diksha Dubey
  • Apr 28, 2020
  • 1 min read

Updated: Oct 9, 2020


जंग लग रहा इस शरीर में इसमें प्राण जगाओ ना।

पर उपकार के काम में आऊ ऐसा ज्ञान सिखाओ ना।

मन की सुनती, पेट को भरती, तन को महज़ सजाती हुं।

सेवा खुद तक, मेवा खुद तक, मैं खुद तक रह जाती हुं।


जब से घर तक सीमित हुं

बुद्धी पर लग गई सीमा है।

अजर प्रकाशित तेज मेरा

परहित से वंचित धीमा है।


मुश्किल की घड़ी ऐसी आई।

छूने से डरे लोग ओ भाई।

एक घर में Netflix and chill है।

दूजे में ना तेल न तिल है।


गर तुम हो Netflix विधाता

बन जाओ दीनों के दाता

हम मिलकर कुछ कर दिखलाएं

समृद्ध समय की ढाल बनाएं

असहायों की भूख मिटाएं

लगे हाथ कुछ पुन्य कमाएं।


आज घड़ी जो आई है

उसको भी कल तो जाना है।

तब तक कोशिश जारी है

कोई बड़ा लक्ष्य नहीं पाना है।

जिन लोगों की सांझ ढली है

सूरज पुनः उगाना है।

बुझी हुई बाती सुलगा कर

फिर से दिया जलाना है।

 
 
 

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